रविवार, 22 अप्रैल 2012

आधी आवादी और और हमारे चित्र

आधी आवादी और और हमारे चित्र
भारतीय राजनीति के आज और कल
डॉ.लाल रत्नाकर 

दरअसल अभी हाल के चुनाओं में महिलाओं ने जिस प्रकार पुरुष वर्चस्व वादी दलों को किनारे कर अपना आधिपत्य बनाया है, वह इस समय की एक बड़ी सांकेतिक पहल है, भले ही दलित और पिछड़े की औरतें इसमें न हो लेकिन महिला आरक्षण की पुरुष प्रधान सोच कहीं न कहीं इन नारियों की राजनितिक बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार है.

१.शीला दीक्षित  २.मायावती  ३.ममता  ४.जयललिता ५. वसुन्धरा राजे  ६. उमा भारती ६. सुषमा स्वराज

ये बात ज़रा पुरानी हो गयी है पर हम यह नहीं कह सकते कि महिलाओं ने अभी कुछ कम कर दिया हो, इस बीच इनके साथ बढे जुर्म एक अलग कहानी कहते हैं जिनमें साधू संतों मीडिया मालिकों या बिगड़े हुए नवजवानों का सवाल हो या इसके पीछे के किसी और  तरह के विचार हों लेकिन आज यह आधी आवादी निरंतर जागरूक होने के लिए आगे आ रही है अब सवाल यह है कि यह मूल्यांकन कौन  करेगा, वहीँ स्त्रियों के प्रती घटिया सोच वाला पुरुष समाज ?
डॉ लाल रत्नाकर की  कृति 
आज कि स्त्री /महिला जागरूक है उसे अपने हित के अनेक सवाल उठाने में कोई संकोच नहीं है, हर तरह से आगे बढ़ना / बढ़ाना चाहती है अपने समग्र को। पर जब बात आती है सामजिक सरोकारों कि तो पुरुषों वाला भेदभाव यहाँ भी हाज़िर हो जाता है। पिछले दिनों कि बात है मेरी एक छात्रा ने बताया कि उसकी सहेली को इस बात से चिढ है कि उसे कुछ राजकीय सहूलियतें मिल जाती हैं प्रवेश आदि में, पर टॉप करने के लिए तो मेहनत ही करनी पड़ती है, लागता है उसकी सहेली को उसका टॉप करना रास नहीं आ रहा होगा।  जो भी हो पर ये वही सामजिक विषमता यहाँ भी घर किये है -

लेखक ; डॉ लाल रत्नाकर को गुरुकुल पब्लिक स्कूल के स्टाफ और गैरज़ियन के साथ साथ में हैं डॉ एकता सिंह।  
महिलाओं में भारत कि आत्मा ही नहीं बसती है बल्कि उनसे इस मुल्क कि पहचान होती हैं, जो अपने आप में उनके लिए गौरव का विषय है, पर यह सब कुछ इतनी आसानी से नहीं होता है ये सब भी उनके लिए ऐसे ही नहीं है जिसके लिए उन्हें 'धरती' जैसा उर्वरा बनना पड़ता है। 

अब रही बात हमारे राजनैतिक स्वरुप और महिलाओं के राजनैतिक वर्चस्व की तो अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है, महिलाओं के विविध सदनों की आरक्षित स्थिति और उनके अम्लीय रूप की तो वह भी अधर में ही है, जबतक उन्हें आरक्षण नहीं मिलता तब तक उनकी निश्चित संख्या की उपस्थिति संभव नहीं दिखती। पर इसमें जो सबसे खतरनाक मोड़ है वह यह कि यहाँ तमाम उनलोगों की उपस्थिति नहीं होगी जो समाज के उन तबकों से आती  हैं जो मुस्लिम, पिछड़े और दलित हैं अथवा वर्तमान समय में आर्थिक रूप से विपन्न हैं। आर्थिक विपन्नता के सवाल पर समाज में अजीब तरह का आकर्षण है की यह आधार ही आरक्षण का होना चाहिये  यही वह सवाल है जिसके चलते  धनवान और निर्धन की पोल खुलने लगी है ? अतः यह सवाल सामाजिक विस्तार का ही रहना चाहिए। 

महिलाओं का सांस्कृतिक सरोकार ; 
सबसे बड़ा काम तो  सांस्कृतिक सरोकारो का है जिसे हमारी महिलायें ही संभालती है, धर्म जिसका बहुत बड़ा सम्बाहक तो है पर इसी धर्म से उनकी प्रताड़ना भी होती है, यथा पुरुष वर्चस्व वाले इस समाज में महिलायें बहुत ही करीने से समाज के हासिये की सामग्री के रूप में खड़ी कर दी जाती हैं (यहाँ भी शिक्षा, सहभागिता, सम्पदा की अपनी स्थिति में बहुत कुछ सामाजिक सरोकारों पर आधारित है ) यही कारण है की उनकी सोच में सामाजिक कुरीतियां घर कर जाती हैं और वे उससे आजीवन बाहर निकल ही नहीं पाती हैं।  मुझे लगता है सांस्कृतिक सरोकार ही इसके लिए उतने ही दोषी भी हैं। 

   

Exhibitions & Media


























बुधवार, 16 मार्च 2011

exhibition of selected paintings


vibes
of
womenfolk

Your benign presence is requested on the opening of
an exhibition of selected paintings

by
Dr.Lal Ratnakar
at
Lalit Kala Academy
Gallery No. 7 & 8
Ravindra Bhawan,
35, Feroz Shah Road, Near Mandi House,
NEW DELHI.

on
Sunday, March, 13th, 2011 at 5-00pm

Shri Santosh Bhartiy
Editor, Chouthi Duniya and former member of parliament

Has kindly consented to open the show.

RSVP:
09810566808
artistratnakar@gmail.com
 
Exhibition will remain on view, from 13th  to 19th March,2011
11am to 07pm daily.






मंगलवार, 1 मार्च 2011

सहारनपुर यात्रा


मुन्ना लाल गर्ल्स कालेज में परीक्षक के रूप में जाना पड़ा था, प्रथम सेमेस्टर के विद्यार्थियों के अलावा अन्य कक्षाओं  के विद्यार्थियो तथा शोध छात्राओं एवं उनके प्राध्यापकों व् प्राचार्या के विशेष आग्रह पर डेमोसट्रेशन दिया लगभग हर माध्यम में . सहारणपुर के समाचार पत्रों  ने हर डेमोसट्रेशन को बढ़ चढ़कर अपने अपने समाचार पत्रों के माध्यम से प्रकाशित किया .
इस यात्रा का लाभ यह रहा की परीक्षक के कार्य के साथ साथ शहर के संस्क्रीतक गौरव को समझने  का मौका मिला, यहाँ के विश्व विख्यात लकड़ी के उत्किरण के कार्य को करीब से देखने का मौका मिला  छात्राओं को कला की बहस में  कुछ जानने का संयोग बना . कला की महत्त्वपूर्ण विधाओं के विषय में विस्तार से चर्चा भी हुयी डॉ.मधु जैन के संकलन रचनाओं एवं पुस्तकों के रूप में पहली बार देखने को मिले, इन सब के अलावा कालेज की प्राचार्या डॉ.रंजना प्रकाश से मुलाकात और उनके वाराणसी के अनुभवों ने वहां को फिर से जीवंत कर दिया |
कुछ खरीद फरोख्त और गेस्ट होउस के कर्मचारिओं की यादें और जिले के उप जिला अधिकारी शुक्ल जी का स्नेह डॉ.राम शब्द सिंह जी की मेहमान नवाजी, डॉ. महेश  और  जनाब अकबर का स्नेह याद दिलाता रहता है सहारनपुर को.

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बी.बी.सी.हिंदी के विभिन्न ब्लोगों पर हमारी टिप्पणियों से उधृत है.

डॉ.लाल रत्नाकर


07 मई 2011 Dr.Lal Ratnakar-Ghaziabad/Jaunpur:
विनोद जी आपका ब्लॉग अमरीका को शर्मसार करता है, पर ये बेशर्मी अमरीका होने की इच्छा करने वाले भारतीयों में भरपूर है यही कारण है कि इस नई नैतिकता से भरपूर लोग अमरीका का समर्थन करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं. पर आप चिंतित मत होइए ये अमरीका बनने वाले पाकिस्तान किसी कमांडो को नहीं भेज रहे हैं, घर में भौंकने की इनकी आदत है वही कर सकते हैं अन्यथा इन्हें तो सब पता है कि भीतर और बाहर का हमलावर कौन है. यहाँ तो सर्वोच्च न्यायलय के कहने पर भी बहुत से क़ानून को अमल में नहीं लाया जा रहा है. अमरीका नैतिकता की नाहक दुहाई देता है गुंडों जैसा आचरण करता है. आपने ठीक लिखा है कि "लेकिन हम एक सभ्य सुसंस्कृत समाज का हिस्सा हैं और हमने समाज को संचालित करने के लिए क़ानून बना रखे हैं. हम सबसे उम्मीद की जाती है कि हम क़ानून का पालन करेंगे. लोकतंत्र की हिमायत करने वालों को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र की सभी संस्थाएँ सिर्फ़ अपने हिस्से का काम करें."
पाकिस्तान में ओसामा को शहीद बताकर प्रदर्शन किए जा रहे हैं. एक सभ्य सुसंस्कृत समाज का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए. आपने कितना उपयुक्त लिखा है "सुरक्षाबलों को सज़ा देने का अधिकार नहीं दिया जा सकता और न सेनाएँ अदालतों का काम कर सकती हैं." सुन्दर लिखने और विश्लेषण के लिए बधाई.



02 मई 2011 Dr.Lal Ratnakar-Ghaziabad/Jaunpur:
राजेश जी यह आम शादी नहीं थी इंग्लॅण्ड के शाही परिवार का शादी समारोह था जिसकी दुनियाभर में चर्चा हुयी है, परमपराओं का निर्वहन या शक्ति का प्रदर्शन जैसा नहीं तो फिर क्या. हिंदुस्तान की फ़िल्मी शादियों के अलावा कई यहाँ की शाही शादियों में जाने का मौका मिला है. जिसमे दकियानुशी परम्पराओं को छोड़ एक नई रित गढ़ी गयी थी या है पर 
ब्रिटेन की इस राजसी शादी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसका मकसद क्या है. मुझे याद आ रहा है 'हिंदुजा' फॅमिली की भी एक शादी बहुत चर्चित हुयी थी, कब तक आम आदमी को ये शादियाँ चिढ़ाती रहेंगी.


26 अप्रैल 2011 Dr.Lal Ratnakar-Ghaziabad/Jaunpur:
बोया पेड़ बबूल का -आम कहाँ से खाय |
अन्ना जी का उत्तर प्रदेश जाना अभी जल्दबाजी का काम है, बहन जी का उत्तर प्रदेश पर राज्य करना देश की पहली दलित प्रयोगशाला है, इसमे 'भ्रष्टाचार की बात भी बेमानी लगती है क्योंकि बेईमानों को हटाकर बिना बेईमानी के कैसे राज करेंगी' भ्रष्टाचार के आगोश में पूरा देश डूबा हो तो बहन जी का भ्रष्टाचार समुद्र में बूंद जैसी ही है.पर आज जिस तरह से 'भ्रष्ट' समाज पैदा हो गया है उसका क्या होगा ? उसका ठीकरा प्रदेश के जन जन तक फोड़ा जा रहा उसका इलाज कैसे होगा. यदि उत्तर प्रदेश में इनका यही हाल रहा तो प्रदेश का क्या हश्र होगा. त्रिपाठी जी ने इशारे इशारे में ही उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व और वर्तमान पर इशारा किया पर अभूतपूर्व दलों की ओर इशारा तक नहीं किया है. पूरे प्रदेश नाम पर बहु बेटियों तथा स्वजातियों को बैठाये हुए है जिसका अदृश्य रूप जब सामने आता है तो दिखाई देता है की घोर अत्याचार में लम्बे समय से डूबा है. लेकिन पुलिस की भर्ती में धांधली की आवाज़ तो हाई कोर्ट तक जाती है, पर सारी भर्तियों में - जातीय निक्कमों की फौज की फौज - सारे सरकारी दफ्तरों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में थोक में है पर उनपर न तो मीडिया नज़र उठाता है और न अन्ना हजारे निकलते हैं सुधार के लिए "दलित राज्य की उपलब्धियों को नकारने का मतलब तो समझ में आता ही होगा" पर सारी उपलब्धियों का श्रेय "द्विज" शक्तियों को देना बहुत बड़ी साजिश है.
अतः अन्ना का आना "शुभ नहीं है".

21 अप्रैल 2011 Dr.Lal Ratnakar-Ghaziabad/Jaunpur:
विनोद जी, आपकी चिंता भी उसी 'व्यक्ति पूजक' परंपरा को हवा दे रही है. ब्लॉग के ज़रिये आपने वह सब कुछ कहा है जो राहुल की बिसात है. सामंतवादी सोच और नाटकीय समाजवाद तो इस देश के भाग्य में लिखा है. इस देश का भाग्य विधाता बाकायदा चयनित किया जाता है. मीडिया में, सार्वजनिक सेवाओं में, राजनीति में और धार्मिक संस्थानों में. वहीं से 'हीरो' और 'ज़ीरो' बनाने की साजिशें होती हैं. किसी दिन यही चुपचाप बनाकर परोस दिए जाएंगे और तब नव व्यक्ति,शक्ति और सत्ता की कमान संभाले किसी नाट्य शास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप प्रधानमंत्री भी बन जाएँगे और वही होगा जिसके लिए वे तैयार किए जा रहे हैं . पर तब भी ये हीरो नहीं होंगे रहेंगे ज़ीरो ही. क्योंकि ये नेता नहीं ट्रेनी नेता हैं और जितनी ट्रेनिंग दी जाएगी उतना ही करेंगे. अब सवाल है कि ट्रेनिंग कैसी दी जा रही है.

07 फरवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:

सलमा जी जो बात आप कहना चाह कर भी नहीं कह पा रही हैं वह यह है "आज हम दानव हो गए हैं इन्सान के भीतर आदमी मर चुका है जिन्दा है केवल और केवल हैवान." इस देश की अदालत पुलिस और सियासत एक ही चीज के इर्द गिर्द घूम रहे हैं कि कहीं आम आदमी हमारी जगह 'न' पहुँच जाए और उसे रोको, उसे रोकने का सबसे आसान तरीका है 'भ्रष्टाचार'. इसीलिए ये पंक्तियाँ याद आती हैं - जाके पाँव न फटी बिवाई, ओ क्या जाने पीर पराई. इस मुल्क के अदालत पुलिस और सियासत दा यही कर रहे हैं.सलमा जी की चिंता वाजिब भी हो सकती है जेपीसी हो सकता है अपना हिस्सा वसूले और चुप हो जाये. वैसे भी इस देश में भ्रष्टाचार पर बात तो होती है, पर अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग, धर्म के आधार पर, वर्ग के आधार और जाती के आधार पर, सदियों के मानसिक सोच और अपराधिक उभर के आधार पर इन सबके आधार पर, हो सकता है कसाब भी बच जाये, फांसी की सजा से वह मर जायेगा मगर आतंकवाद को 'फांसी' कैसे दी जा सकती है, विचारनीय तो यह है.


08 फरवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:

तहरीर चौक का सवाल मिस्र में तो हो सकता है पर हिंदुस्तान में बगावत? वह भी बीबीसी का ब्लॉग पढ़ने वालों की ओर से? कमाल की बात है. यही कारण है कि सभ्यता और संस्कृति का नेता रहे मिस्र ने समकालीन युग का राजनैतिक नेतृत्व भी हासिल कर लिया. अमरीका की आतंकी साजिशों और मुसलमानों की मुख़ालफ़त ने ही उन्हें ही नेतृत्व की संभावनाओं के लिए उठ खड़ा होने में बड़ा सहयोग किया है. ऐसे हालात किसी न किसी निरंकुश तानाशाह की ओर से ही पैदा किए जाते हैं. भारत के सदियों पुराने द्विज और दलित आंदोलन के दमन के जब सारे उपाय नाकाफ़ी हो गए तब द्विज और दलित गठबंधन ने जो कुछ आज़ादी के बाद किया वह सबके सामने है. दलितों की दुर्दशा के लिए द्विज अपने ज़िम्मेदार होने को कभी नहीं स्वीकारता, पर दलित की सत्ता में भागीदार बनने से नहीं चूकता. मूलरुप से भारत में जो राजनैतिक बदलाव अब तक हुए हैं उनसे समाजिक बदलाव लगभग न के बराबर हुए बल्कि स्थितियाँ पहले से बदतर ही हुईं. भारत की जनता इन हालातों पर आख़िरकार अपने को ही कोसती रही हैं और उनके नेता 'होस्नी मुबारक' बनते गए.
यहाँ एक बड़ा सवाल विनोद जी ने उठाया है कि 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया' क्या यह जुमला चल निकलेगा? मुझे तो संदेह है क्योंकि यहाँ पर हर नेता, अफ़सर, कर्मचारी और दुराचारी/भ्रष्टाचारी 'होस्नी मुबारक' होने का ख्वाब संजोए हुए है. यदि उसे सचमुच चौक पर होस्नी मुबारक़ नज़र आया तो उन ख़्वाबों का क्या होगा.


23 जनवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:
बापू को याद नहीं होगा इन बंदरों के बारे में, जिनके बारे में आपने लिखा है. बापू के तीनो बंदर मिट्टी के थे उस ज़माने में मिट्टी के बंदर और मिट्टी के आदमी ही हुआ करते थे, तभी तो अंग्रेजों को इन माटी के लोगों से काम चल रहा था. विनोद जी आज तो मिट्टी के बंदर क्या जिन ज़िंदा बंदरों को आपने अपने ब्लॉग में जगह दी है वह गांधी के बंदर नहीं हो सकते. ये सब दरअसल नकली गांधी के बंदर हैं जो बदले-बदले नज़र आ रहे हैं. गांधी के बंदर तो भाग गए छत्तीसगढ़ के जंगलों में और तमाम ऐसी जगह जहाँ 'नकली' कम होता है. ये वहाँ भी वही दुहरा रहे हैं- बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, पर उनकी कौन सुन रहा है. कोई उन्हें नक्सली कह रहा है, उनका कोई हक़ ही नहीं तय हो पा रहा है. मिट्टी के बंदर गांधी के आदर्श थे जिससे आदमी संदेश पाता था. पर आपके ब्लॉग ने तो समकालीन भ्रष्टाचार में बापू के बंदरों को शरीक कर दिया है. शायद 'बाबा' को यह एहसास हो गया रहा होगा कि आने वाले दिनों के भ्रष्टाचार के महानायकों का स्वरुप क्या होगा, ये कहाँ कहाँ मिलेंगे. पर पिछले दिनों एक तमाशबीन मदारी 'बंदर और बंदरिया' का खेल दिखा रहा था खेल का विषय गज़ब का था 'राजा'. सो बंदर को राजसी कपड़े पहनाए और बंदरिया को विलायती ड्रेस. नाम दिया था 'महारानी सोनी' और 'महाराज मोहन'. महारानी की घुड़की पर बूढ़े महाराज हिलते-डुलते थे पर फिर बैठ जाते, मदारी मध्यस्थ की भूमिका में सवाल करता राजा से और राजा अपनी महारानी की ओर देखता. महारानी कुछ सोचते हुए 'टूटी-फूटी भाषा' में कहती, मैंने इस बूढ़े महाराज को राज इसलिए नहीं दिया है कि यह जनता की भलाई करें और मदारी से कहती यह अपना काम ठीक से कर रहे हैं. अमीरों को और अमीर, ग़रीबों को और ग़रीब बना रहे हैं. पर बोल उल्टा रहे हैं. यह काम इनसे 'अच्छा' करके कोई दिखाए हमने और हमारे ख़ानदान ने देश के लिए क़ुर्बानी दी है. ये सारे गड़बड़ तो विरोधी कर रहे हैं जिससे देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. महंगाई बढ़ रही है. सारा गड़बड़ उनके बंदरों ने किया हुआ है. ये ज़्यादा खाने लगे हैं, 'मल्टी स्टोरी' में रहने लगे हैं, मंत्री और मुख्यमंत्री बनाने लगे हैं, लिखने-पढ़ने लगे हैं, कुछ रेडियो और अखबारों में आ गए हैं, पहले तो पेड़ों की डालियों पर लटक के काम चला लेते थे आख़िर महंगाई तो बढ़ानी ही पड़ेगी. भ्रष्टाचार, छिना-झपटी, दुराचार और आतंक ये सब इन्हीं की देन तो है. बापू ने हनुमान को लंका जलाते हुए देखा होता तो उनके 'खानदानियों' को अपने 'उसूलों का अम्बेसेडर' कदापि न बनाते.
15 जनवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:
रेणुजी आप सवाल किससे कर रही हैं, जो घोषित रूप से सेवानिवृत्ति के बाद काम कर रहे हैं, पुनर्नियुक्ति पर हैं, अक्सर ऐसे लोग अपने बाल-बच्चों के लिए अपने जीवन में काम करते हैं. अमूमन अपने सारे ज्ञान को अपने मालिक के लिए लगाते हैं जैसा कि जग जाहिर है माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी निहायत ईमानदार अर्थशास्त्री और कर्मठ नौकरशाह रहे हैं, हम ईमानदार नौकरशाह की प्रशंसा भी करते हैं. लेकिन किसी देश का प्रधानमंत्री यह कहे कि ग़रीब ज़्यादा खाने लगे हैं इसलिए महंगाई बढ़ गई है, पता नहीं प्रधानमंत्री जी को कौन सा अर्थशास्त्र आता है पर अब तक तो यह होता रहा है कि जब महंगाई कम होती है तो ग़रीब का भी पेट भरने लगता है. यह मान्यता मनमोहन सिंह जी ने महंगाई बढाकर बदल दी है. इस प्रयोग पर इन्हें 'मैग्सेसे' अवार्ड तो मिल ही जाएगा. रही बात आपके सवाल की तो ये जिस मीडियम और सिस्टम में जी रहे हैं वहाँ इसका उत्तर बाकायदा विचार करके मंत्रियों के समूह से सहमति बनाकर दे चुके हैं. इस देश की किस्मत ही ख़राब है तो मनमोहन क्या करें एक भी राजनेता इस लायक नहीं रहा कि उसे देश का प्रधानमंत्री का पद दिया जा सके. अब सब समझ आता है कि 'सोनिया को अपने पुत्र के लिए 'फिलिंग द गैप' वाला प्रधानमंत्री चाहिए था सो वैसे ही 'रिटायर्ड' कामचलाऊ जैसा देश चल रहा है. चारों ओर हाहाकार, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी और न जाने क्या क्या. पर कुछ भी ठीक नहीं पर प्रधानमंत्री नियंत्रण में हैं. अगर यही 'यह सरकार की सामाजिक न्याय दिलवाने की पहल का ही नतीजा है' तो इससे तो सामाजिक अन्याय ही ठीक था. जिसमे आम आदमी भूख से तो नहीं मर रहा था.
08 जनवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:
कराची हो या दिल्ली दोनों पर इस बयान 'सलमान तासीर की हत्या को दुखदायक घटना क़रार देने वाले टीवी ऐंकर और विश्लेषक झूठ बोलते हैं.' कमोबेश दोनों तरफ़ यही हालात हैं, मुद्दे अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन एक बड़ी बाधा 'धर्म' है इसी धर्म ने अधर्म की सारी मान्यताएं गढ़ीं हैं, सब कुछ करने को खुली इज़ाज़त देती है, अगर असल में कोई धार्मिक मानसिकता का आदमी क्या हिम्मत कर पाएगा 'मानव धर्म' के लिए सभी कट्ठ्मुल्लों, पंडितों और पादरियों का गला रेतने की हिम्मत कर सके? सारे विकास के रास्ते इन्ही मानव निर्मित 'धर्मस्थलों' में जाकर विलीन हो जाते है और वहीँ से भुखमरी, भ्रष्टाचार, जातीय विद्वेष, नारी शोषण का मार्ग प्रशस्त होता है. शायद यही भाव 'सलमान तासीर' के मान में भी रही हो!
02 जनवरी 2011 Dr.Lal Ratnakar:
सलमा जी ईमानदारी से देखा जाय तो जिस मुद्दे को आपने उठाया है वह मुद्दा जितना जमीनी है, उतना ही मुश्किल भी. मैं आपको विश्वास के साथ यह बताने का यत्न कर रहा हूँ की गत दशक में इन मूल्यों में/की जितनी गिरावट आयी है वह संभवतः इस सदी का महत्त्व पूर्ण अभिलेख / रिकार्ड बने जैसे हर युग का एक इतिहास बनता है वैसे ही यह दौर जितनी बातें आपने गिनाई है का रेकोर्ड बनने जा रहा हैं. क्योंकि आपकी चिंता सहज नहीं है कहीं न कहीं आपको भी इनकी आंच जरुर आयी होगी आपके बगल में बैठा हुआ आपको/आपकी कितनी बुराईयाँ ढूंढ़ रहा है जबकि आपकी अच्छाईयाँ उसके गले से नीचे जा ही नहीं रही है. इनका क्या होगा ! मुझे याद आ रहा है मेरे गाँव में एक पंडित जी हुआ करते थे और बहुत सारी 'कहावतें' सुनाते थे जिनमे 'नैतिकता,चरित्र,नियति,इमान आदि को वो रेखांकित करती थीं' आश्चर्य और धैर्य सहज समझ आ जाता था, पर आज घर घर में विज्ञान के प्रवेश ने जहाँ हमें 'भूमंडलीक्रित' किया है वहीँ उस पर परोसे जा रहे अधिकतर 'कु-संस्कार' युक्त 'प्रोग्राम' ज्यादा असर डाल रहे हैं और संस्कारित कार्यक्रम कम. मिडिया के इन माध्यमों का विस्तार कभी भी संस्कारित प्रोग्राम की लोकप्रियता बढ़ाने पर शोध नहीं कराता, बल्कि उनके नियंत्रण के लिए जिन्हें भी जिम्मेदारी सौपता है वही गैर जिम्मेदार हो जाते हैं. काश इनको समझ आती की क्या वह वो दिन ला पाएँगे जब हमारी नई पीढ़ियाँ पूछें कि बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी, झूठ, लालच और धोखाधड़ी किस चिड़िया का नाम है? और शायद नहीं क्योंकि अधिकांश की जड़ें तो बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी, झूठ, लालच और धोखाधड़ी में ही गहरे तक धसीं हुयी हैं ?
29 दिसम्बर 2010 Dr.Lal Ratnakar:
'देशद्रोह' बहुत अटपटा सा मामला है. उस देश के लिए द्रोह जहां लोग देश को लूट रहे हैं या जो इस देश में लुट रहा है? बिनायक सेन को अपराधी बना देना माननीय जज साहब के लिए इसलिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि बिनायक सेन जी की एक लॉबी है जिनके जरिये देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चा हो रही है. लेकिन इस देश में कई जज साहब न जाने कितने 'अपराधियों' को खुलकर अपराध कराने में मदद करते हैं. जबकि न जाने कितने 'निरीह' को सज़ा देते हैं. जिन्हें इसी देश का आम आदमी माननीय जज साहब को भगवान और अल्लाह मानकर सिर-माथे लगा लेता है. ऐसे असंख्य मामलों का हवाला उपलब्ध है जिस पर समय-समय पर माननीय जज साहब भी टिप्पणी करते रहते हैं.
संभवतः यह सब देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता होगा क्योंकि उन्हें 'न्याय' करने का हक़ दिया गया है. श्री बिनायक सेन को वह सब कुछ करने का हक़ किसने दिया. चले थे जनांदोलन करने. जिस देश का 'न्यायदाता' न्याय न करता हो और मामले को लटका के रखता हो और वहीं इस मामले में जो भी न्याय किया गया है वह भले ही दुनिया को 'अन्याय' लग रहा हो पर कर तो दिया. वाह, आप ने भी कैसा सवाल उठा दिया. लगता है कि अभी आप पत्रकारिता के सरकारी लुत्फ़ के 'मुरीद' नहीं हुए हैं. अभी हाल ही में कई पत्रकारों के नाम ज़ाहिर हुए हैं. लेकिन इतना हाय तौबा क्यों मचा रखी है? ऊपर वाले माननीय जज साहब ज़मानत तो दे ही देंगे यदि ऐसा लगता है की भारी अपराध है ज़मानत नहीं मिलेगी तो उससे भी ऊपर वाले माननीय जज साहब जो नीचे वालों की सारी हरकतें जानते हैं वह ज़मानत दे देंगे. विनोद जी आपकी चिंता वाजिब है इस देश के लिए अगला ब्लॉग संभल कर लिखियेगा 'यह देश है वीर जवानों का, बलवानों का, धनवानों का. जयहिंद.

11 दिसम्बर 2010 डॉ.लाल रत्नाकर:
सलाम जी पहले तो आप को बधाई की आपने एक ज्वलंत और सदियों के ऐसे चुभते हुए घाव को सहलाने की जहमत की है जिससे जैसे 'एक पीड़ित प्राणी के घाव पर मक्खियाँ भिन-भिना रही हों'. वैसे ही दुनिया के उस हर समाज में वह जो सामर्थ्यवान है सदा से अपने 'कर्म' या 'दुष्कर्म' के निकम्मेपन से 'अनेक प्रकार के आघात करता/कराता आया है, उसकी सारी ऊर्जा उसके दुष्कर्मों की सूची को लंबा करने में इस्तेमाल होती आई है. बेहतर और मानवाधिकारों की चिंता करने वाले कमोबेश उसके इन्ही पहलुओं पर उलझ कर रह जाते है.
समग्र रूप से इससे निजात का रास्ता क्या हो इसको ब्लॉग में सुझाया गया होता तो शायद कुछ अलग हो सकता. वैसे तो आपने अंतरराष्ट्रीय पहलुओं की परिधि में झांकने की जो कोशिश की है वो प्रसांगिक हो सकती है. पर हिंदी अथवा भारत के संदर्भ में 'मानवाधिकारों' की चर्चा से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, शायद उनकी तरफ आपका इशारा है! पुनः आपको साधुवाद, पर कभी फुर्सत मिले तो इनके उपचार के लिए मीडिया क्या सोचता है, जरुर बताइएगा. इंतजार रहेगा.

29 नवम्बर 2010 Dr.Lal Ratnakar:
"टुच्चा सा पत्रकार" लिखकर आपने पत्रकार बिरादरी की ज़हमत तो मोल नहीं ले ली है, मैं तो प्रोफ़ेसर हूँ यदि मै उनके बारे में "टुच्चा सा" कह दूँ तो वह आँख निकालने और"जीभ" काटने पर उतर आएँगे. यह कैसे कह दिया, किसने दिया अधिकार आपको. पर ये "टुच्चे" 
होते तो सब जगह हैं. इनके नख-शिख वर्णन पर आप व बीबीसी को हार्दिक बधाई.

28 मई 2010 Dr.Lal Ratnakar:
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बहन मायावती ने कहा कि मेरा तो नाम ही 'माया' है. सामान्यतया माया का अर्थ हर उस वस्तु के लिए उपयोग में लाया जाता है जिससे कुछ प्राप्त हो रहा हो यथा धन दौलत हीरे मोती जवाहरात समृद्धि का हर वह इंतजाम जो आम आदमी को मुहैया नहीं होता, जब इस तरह की माया आने लगती है तो वह मायामय हो जाता है.
"कबीर दास" को लगता है माया कभी रास नहीं आयी तभी तो उन्होंने कहा "माया महाठगनी हम जानी". उन्हें जरूर माया ने ठगा रहा होगा यानि जब भी वह माया के चक्कर में पड़े होंगे तो ठगे जरुर गए होंगे, पर जया और माया को एक साथ जिस नज़रिए से त्रिपाठी जी ने देखा हो वह राजनीति में तो होता ही है.






रविवार, 20 फ़रवरी 2011

यहाँ काबिलियत के मायने क्या हैं ?

भारत एक जाती प्रधान देश है जिसमे अनेकों जातियां हैं, इन जातीय पुरुषों एवं स्त्रियों की अलग अलग पहचान है, इसी पहचान के कारण सदियों से उनके जीवन यापन-यथा रहन-सहन, शारीरिक संरचना, पहनावे, क्रियाकलापों से ही लगभग उनकी पहचान कर ली जाती है.
स्वाभाविक है इसका असर स्त्री पुरुष एवं बच्चों पर भी पड़ेगा, आनुवंशिक  विकास की अवधारण यद्यपि वैज्ञानिक है पर अनुवंशिकीय अवधारणा जब अपना असर डालती है तो उस देश का विकास और मौजूदा समाज अपने अपनाए जा रहे उत्थान के किस मार्ग पर चल रहा है इसकी किसी को सुध नहीं हैं और न ही जीवन की परवाह ही।
समानांतर विविध व्यवस्था के चलते देश में जिस उभार की कल्पना की जाती है उसमें  धर्म, वर्ग, लिंग, जाति, क्षेत्र एवं स्वाभाव आदि के भेद क्या हैं उनसे उस व्यक्ति के कर्म (रचना कर्म) या उनके कर्मों को कैसे प्रभावित करते हैं इस विचार किया जाना ही मूलतः हमारा राष्ट्रीय उद्येश्य होना चाहिए था परन्तु इस मौलिकता से परे जिस पाखण्ड और निराधार अन्धानुकर्निय समाज निर्मित किया गया उसका असर हमारी हर व्यवस्था को कमजोर कर रहा है . यही कारण रहा है की असंतोष का क्षण कभी कम नहीं हुआ, भले ही हम संतोष का प्रदर्शन करने का दिखावा करते हों परन्तु रात दिन हम उसे संभालने और बढाने में ही व्यय कर दिए हैं।
इस आधार पर मूल्यांकन करने से सामाजिक ढांचा जिस खांचे में खड़ा है, सदियों तक वैसे ही खड़े रहने की स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता. क्योंकि यहाँ विद्वानों की जाति निर्धारित है, कामगारों की जाति निर्धारित है, गुंडों और लठैतों की जाति निर्धारित है, डकैतों की जाति निर्धारित है, इन्ताज़म्कारों की भी जाति निर्धारित है, गरीबों का खून चूसने वालों की जाति निर्धारित है. दूसरी ओर मंदिरों के पुजारियों की जाति निर्धारित है, स्कूलों,कालेजों,विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वालों की जाति निर्धारित है, सेना में भर्ती के लिए जाति निर्धारित है, देश चलाने के लिए अफसरों कर्मचारियों की जाति निर्धारित है, व्यवसाय चलाने वालों की जाति निश्चित है, लड़ने भिड़ने वालों की जाति  भी निश्चित कर दी गयी है. जहाँ सब कुछ जाति आधारित है वहां काबिलियत के मायने क्या हैं ?

अनेकों रिपोर्टों एवं अनेकों आन्दोलनों के बावजूद सबकुछ यथावत है ऐसा होने के पीछे के कारण क्या है ? यह एक नाकाबिलियत है व्यवस्था की जो उन लोगों को अधिकार और औरों का हिस्सा हड़पने का हक़ दे देता है जो अपराधी हैं, भ्रष्ट हैं, चरित्रहीन हैं, पदलोलुप हैं, स्वार्थी और लालची है दुर्भाग्य वश ये उनके सेनानी बन जाते हैं जो भ्रष्ट और बेईमान हैं. इन्हें ही 'हम' अपना मसीहा, मालिक, गुरु और  नेता मान लेते हैं और ये सामाजिक पुरोधा हैं, जो बदलाव के बदले स्वयं ही बदल जाते हैं, भारतीय बदलाव का असली चेहरा कुछ इसी तरह का है. महिलाओं के सवाल पर भी कुछ येसा ही होता है. दरअसल कमोवेश यही हाल विभिन्न क्षेत्रों में इनका भी है, दलितों और पिछड़ों का भी है . क्योंकि जहाँ जहाँ जहाँ से नियंत्रण या स्वार्थ को तोड़ने का सवाल खड़ा होता है तो वे भी इसी के हिस्से हो जाते हैं, और यही कारण है की बदलाव की साड़ी सम्भावनाएं धरी रह जाती हैं .
तब लगता है की बदलाव ही बेमानी है क्यों न इसी राह को पकड़ें जिसमें संघर्ष नहीं है सहज है यही सहजता दरअसल बेईमानी की राह दिखाती है, यहीं से शुरू होता है अपराध।
सुनियोजित अपराध की अवधारणा;
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